अर्जुन को कुल कितने वरदान प्राप्त थे? जानिए

अर्जुन को कुल कितने वरदान मिले थे यह जानने से पहले चलिए महाभारत काल के कुछ शक्तिशाली वरदान के बारे में जान लेते हैं।

भीष्म (कर्म से) – इच्छा मृत्यु का वरदान। उनकी मौत तब होगी जब वह खुद चाहेंगे।

कर्ण (जन्म से) – सूर्यदेव से अभेद्य कवच कुंडल का वरदान।

कुंती (कर्म से) – ऋषि दुर्वासा को प्रसन्न किया था और उनके दिये मंत्र से वह किसी भी देवता को अपने नियंत्रण में ला सकती थी।

जयद्रथ (अपने पिता से) – अगर जयद्रथ का वध कर दे और उसका मस्तक जमीन पर गिर जाए, तो जयद्रथ को जिसने मारा है उसका वध हो जायेगा।

भगदत्त (अपने पिता से) – उसके पिता नरकासुर ने भगवान विष्णु से वैष्णवास्त्र की शिक्षा ली और यह अस्त्र का ज्ञान अपने बेटे भगदत्त को प्रदान की।

जयद्रथ (कर्म से) – खाना छोड़ कर तपस्या कर के महादेव को तृप्त किया। तब उससे वरदान मिला कि अर्जुन को छोड़ कर बाकी सभी पांडवों को एक दिन के लिए वह हरा सकता था।

यहाँ से आपको पता लग गया होगा कि कुछ वरदान जन्म से मिलते हैं तो कुछ कर्म से। चलिए पढ़ते हैं अर्जुन को कब, कहाँ, कैसे, कौनसा वरदान मिला था।


अर्जुन का जन्म वन में हुआ क्योंकि महाराज पांडु राज्य त्याग कर चुके थे। जब वह 14 साल का हुआ, तो अपने पिता को भी खो बैठा। जन्म से उससे कोई वरदान प्राप्त नहीं हुए थे।

अर्जुन ने अपने जिंदगी के पहला चौदह साल वन में, गुरुकुल में बारह साल, एकाचक्र नगरी में कुछ साल, दो बार वनवास के दौरान २४ साल वन में गुजारे। जाहिर सी बात है कि उनको मुफ़्त में कोई भी वरदान नहीं मिला।

  • अर्जुन ने द्रोण से शिक्षा प्राप्त की और संकट के समय उनको मगर से बचाया और गुरु दक्षिणा के स्वरूप द्रुपद को परास्त भी किया।
  • इंद्र से दिव्यास्त्र प्राप्त की तो गुरु दक्षिणा स्वरूप निवटकवच राक्षसों का वध किया।
  • खांडव वन में हुई युद्ध में देवताओं को परास्त किया तो बदले में वरुण से गांडीव धनुष और अक्षय तरकश मिला।
  • महादेव को प्रसन्न करने के लिए अर्जुन काँटों से भरी जंगल में गया और हिमालय पर्वत पर गहरी तपस्या में लग गया।

पहला महीना – हर तीन दिन में एक ही बार फल खाता

दूसरा महीना – हर छह दिन में एक ही बार खाता

तीसरा महीना – हर चौदह दिन में एक बार, वह भी गिरे हुए पत्ते खा कर

उसके बाद – संपूर्ण उपवास

हाथ उपर कर के पंजे के भरोसे खड़ा रहकर महादेव की आराधना की। तब महादेव बहुत दिनों बाद किराट रूप में आये, युद्ध की, अर्जुन से प्रसन्न हुए और पाशुपतास्त्र का ज्ञान दिया

अर्जुन को कोई भी वर दान जन्म से या किसी के दया से प्राप्त नहीं हुए। उसने अपनी मेहनत, तपस्या, भक्ति और ध्यान से अपने गुरू और देवताओं को प्रसन्न किया, उनसे अस्त्र, शस्त्र, धनुष और धनुर्विद्या की कला सीखी। महाभारत काल में कुछ ऐसे भी लोग थे जो गुरु को झूठ बोल कर उनसे दिव्यास्त्र सीखने की इच्छा रखते थे, लेकिन अर्जुन ने ऐसा रास्ता कभी नहीं अपनाया।

बरदान और आशीर्वाद दो अलग बात होती है। जो धर्म के पक्षधर होते हैं, जो दूसरों की भलाई करते हैं (एक ब्राह्मण के लिए अर्जुन अपना प्रण तोड़ कर १२ साल वनवास गए थे), ऐसे महात्माओं पर भगवान का आशीष हमेशा ही रहता है (दुर्गा हो कृष्ण हो हनुमान हो या इंद्र हो)।

लेकिन देवताओं ने अर्जुन के लिए कभी लढाई नहीं की, अगर करते, तो कुरुक्षेत्र युद्ध अठारह दिन कभी नहीं जाता।

अतः, अर्जुन पर देवताओं का आशीर्वाद था क्योंकि वह धर्म का पक्षधर था, गुरु की भक्ति करता था, दूसरों की मदद करता था आदि। लेकिन वरदान उससे सिर्फ एक ही मिला था गांडीव धनुष और अक्षय तरकश के रूप में जो उससे खांडव वन के सफलता के बाद वरुण देव से प्राप्त हुई थी।

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