कुंती ने कर्ण को किस नदी में प्रवाहित किया था? और क्यों?

महाभारत में अश्व नदी का वर्णन चर्मण्वती नदी की सहायक नदी के रूप में किया गया है। ऐसा वर्णन है कि कर्ण को कुंती ने एक काष्ठ मंजूषा में रख कर अश्व नदी में बहा दिया था। वहाँ ये वो मंजूषा सर्वप्रथम चर्मण्वती नदी, फिर यमुना और अंततः गंगा तक पहुंची। गंगा में बहती हुई वो मंजूषा चम्पानगरी (वर्तमान का भागलपुर जिला, बिहार) में जा पहुँची जहाँ उसे अधिरथ ने प्राप्त किया और कर्ण को अपने पुत्र के रूप में स्वीकार किया।

इस विषय में एक श्लोक भी महाभारत में है:

मंजूषा त्वश्वनद्या: साययौं चर्मण्वतीं नदीम्। चर्मण्वत्याश्च यमुनां ततो गंगां जगाम है। गंगाया: सूतविषयं यम्पामनुययै पुरीम्।

ऐसी भी मान्यता है कि सर्वप्रथम इसी अश्व नदी के किनारे होने वाले यज्ञ को अश्वमेघ यज्ञ कहा जाने लगा। हालाँकि अधिकांश ग्रंथों में अश्वमेघ यज्ञ का नाम उस यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले अश्व के कारण पड़ा है।

जहाँ तक कारण का विषय है तो वो तो सबको पता है ही। मैं संक्षेप में यहाँ बता देता हूँ।

कुंती के दत्तक पिता कुन्तिभोज के यहाँ एक बार महर्षि दुर्वासा पधारे। वहाँ कुंती ने उनकी बड़ी सेवा की जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने कुंती को वरदान माँगने को कहा। तब कुंती ने कहा कि वो उन्हें एक ऐसा वरदान दें जो उनके जीवन में उपयोगी सिद्ध हो। दुर्वासा तो त्रिकालदर्शी थे। वे जान गए कि भविष्य में उनका पति (पाण्डु) किंदम ऋषि के श्राप के कारण संतानोत्पत्ति में असमर्थ होगा। यही सोच कर उन्होंने कुंती को एक ऐसा मन्त्र दिया जिससे वो किसी भी देवता का आह्वान कर सकती थी और उनसे नियोग (सम्भोग नहीं) के माध्यम से पुत्र प्राप्त कर सकती थी।

कुंती को वरदान तो प्राप्त हो गया किन्तु उसे परखने के लिए उसने सूर्यदेव का आह्वान कर लिया। मन्त्र के प्रभाव से सूर्यदेव पधारे और कुंती को पुत्र प्रदान करने को उद्धत हुए। अब कुंती घबराई और बोली कि “हे सूर्यदेव! मैं तो अविवाहित हूँ। केवल मन्त्र को परखने के लिए खेल ही खेल में मैंने आपका आह्वान कर लिया था। अविवाहित होते हुए मैं पुत्र कैसे प्राप्त कर सकती हूँ?”

ये सुनकर सूर्यदेव ने कहा “देवी! ये तुमने उचित नहीं किया। किन्तु मैं दुर्वासा के मन्त्र से बंधा हूँ इसीलिए पुत्र दिए बिना वापस नहीं जा सकता। किन्तु मैं तुम्हे वरदान देता हूँ कि पुत्र की प्राप्ति के बाद तुम्हारा कौमार्य पुनः पहले जैसा हो जाएगा। ये पुत्र मेरे कवच और कुण्डल के साथ ही जन्मेगा और संसार का सर्वश्रेष्ठ योद्धा बनेगा।”

तब सूर्यदेव की कृपा से कुंती गर्भवती हुई। अपनी एक दासी की सहायता से उसने सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया किन्तु लोक-लाज के भय से उन्होंने उसे अश्व नदी में बहा दिया। उसी के कुछ समय बाद कुंती का स्वयंवर हुआ जिसमें पाण्डु ने उन्हें प्राप्त किया। पाण्डु को श्राप मिलने के बाद कुंती ने उसी मन्त्र से धर्मराज से युधिष्ठिर, पवनदेव से भीम और देवराज इंद्र से अर्जुन को पुत्र रूप में प्राप्त किया। फिर कुंती ने उस मन्त्र की दीक्षा माद्री को भी दी जिससे उसने अश्वनीकुमारों से नकुल और सहदेव को प्राप्त किया।

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