क्यों पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों को हार का सामना करना पड़ा था?

युद्ध के ३ ही परिणाम होते हैं – हार , जीत और अनिर्णायक ।

युद्ध एक उद्देश्य के लिए लड़ा जाता है जैसे कोई जमीन को हथियाने और वहां अपना राज कायम करने लड़ता है तो कोई व्यक्तिगत रूप से दुश्मन को मारने और बदला लेने के लिए तो कोई लड़ता है सुप्रेमेसी साबित करने के लिए ।

आप यहां इसे ऐसे समझ सकते हैं _ हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर का उद्देश्य था महाराणा को मारना या पकड़ना सिर्फ व्यक्ति से लड़ाई बची थी क्यों कि चित्तौड़ पर वो पहले ही कब्जा कर चुका था । उसकी सेना कई गुना बढ़ी थी राणा की सेना से युद्ध हुआ तो राणा की सेना ने जबरदस्त टक्कर दी और अकबर की सेना अपने प्राथमिक उद्देश्य में असफल रही इसलिए उस युद्ध को अनिर्णायक लिखा जाता है हालांकि हाल हुई रिसर्च में सामने आया कि उस युद्ध को राणा ने ही जीता था ।[1]

अब आते हैं पानीपत के युद्ध में उद्देश्य था – मराठों की उत्तर भारत में” सुप्रेमेसी ” को खतम करना और इसके लिए सभी उत्तरी मुस्लिम शासक एक हो गए और उन्हें कुछ बदनाम राजपूत शासक ( जयपुर के कछवाहा ) पीछे से समर्थन था । राजस्थान के इतिहास ने कछवाहा शासकों को उनकी धोखे बाजी के लिए याद किया जाता है आन और शान की बात को लेकर मेवाड़ और जयपुर की कभी नहीं बनी क्यों कि मेवाड़ के शासक राजपूतों की एकता चाहते थे लेकिन जयपुर के नाकाबिल शासकों ने मुगलों की गुलामी मंजूर की और एक समय मुगलों के रक्षक वो ही बने और जितना भी मुगल विस्तार हम देखते हैं वो उन्हीं की बदौलत था ।

आप यहां एक बात ध्यान में रखे कि पानीपत की लड़ाई में सिर्फ अब्दाली की सेना नहीं थी उसमें दोआब के सारे अफ़ग़ान थे जैसे रोहिल्ला ।[2]

अगर देखा जाए तो अब्दाली सिर्फ एक चेहरा था उसके पीछे कई और ताकत थी जो मराठों के हिन्दू स्वराज के साथ खुश नहीं थे ।

जब मराठा सेना अब्दाली के बेटे का पीछे करते हुए पंजाब जीत सिंधु पार करके अटक ( पाकिस्तान ) तक पहुंच गई तो अब्दाली के साथ मराठा साम्राज्य की सीधी टककर शुरू हुई ।

उस समय मराठों ने देश की भूमि के लिए लड़ाई लड़ी उनका मानना था कि सिंधु पार की जमीन जहां आज कंधार है वो भारत की है । जब लोग ये बात करते हैं कि अंग्रेजो से पहले भारत का नाम नहीं था तो समझ लीजिए उन्होंने इतिहास नहीं पढ़ा है

मेरा मानना है कि मराठाओं के लिए जो घातक सिद्ध हुआ

वो था उनकी रणनीति । सदाशिव भाऊ ने अपनी ताकत को जिस ढंग से इस्तेमाल करना चाहिए था वो उन्होंने नहीं किया ।

असल में मराठा गोरिल्ला वारफेयर में माहिर थे और उन्हें मैदान की लड़ाई का उतना अनुभव नहीं था । मैदान की लड़ाई में राजपूत योद्धा भारत में बेहतर थे जब उन्होंने अपनी ताकत छोड़ अलग रणनीति अपनाई तो उसका खामियाजा भुगतना पड़ा ।

वहीं उन्होंने खतरे को पहचाना नहीं उस समय मराठा शक्ति अपने चरम पर थी और उन्होंने दुश्मन को नज़रंदाज़ कर दिया ।

खैर कारण तो कई है चर्चा के लिए लेकिन इतना जरूर है कि मराठा बहुत ही बहादुरी से लड़े और उन्होंने दुश्मन की सेना का बुरी तरह संहार किया लेकिन रण सबका खून मांगता है ।

हिन्दू योद्धा और विदेशी आक्रामकों में एक फ़र्क था । हिन्दू शासक युद्ध में सेना को लीड करके खुद युद्ध लड़ते थे क्यों कि यही धर्म था लेकिन बर्बर आक्रांता खुद कभी युद्ध में सामने नहीं आते थे । पानीपत में यही हुआ मराठा योद्धा नायक सामने से लड़े और वीरगति को प्राप्त हुए ।

लेकिन जब इस युद्ध में मराठों को हरा हुआ दिखाया जाता है तो मुझे अजीब लगता है क्यों कि जिस उद्देश्य के साथ लड़ा गया था वो हासिल नहीं हुआ था अब अगर हजारों निहत्थे लोग महिलाओं और बच्चों को मार बर्बर लोग खुद को विजेता कहे तो ये इतिहास पर धब्बा होगा ।

क्यों कि जब पानीपत की बात करते हैं तो ये भूल जाते है कि अब्दाली भारत में रुक नहीं पाया चंद दिन भी युद्ध के बाद और बाद में सिंधु तक ही रहा , अगर वो विजेता था तो उसे किसका डर था !

वहीं मराठे इसलिए दुखी थे क्यों कि उनके लाखों निहत्थे मासूम लोग मर गए थे जो कि युद्ध में नहीं मरे क्यों कि भारतीय धर्म में युद्ध में बलिदान सर्वोच्च माना जाता है ।

इससे मराठों को झटका जरूर लगा लेकिन उनकी उत्तर में सर्वोच्चता ख़तम नहीं हुई। इतिहास के अगले १० साल में पूरे उत्तर भारत में मराठा सर्वोच्चता फिर से खड़ी हो गई।

इतिहास नहीं लिखता कि मराठाओं ने कैसा बदला लिया था ! यही समस्या है भारत के इतिहास की वो हल्दीघाटी को तो दिखाता है लेकिन दिवेर को भूला देता है ।

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