गांधारी कौन थी? जानिए इनके बारे
गांधारी गांधार राज्य के राजा सुबल की पुत्री और शकुनि की छोटी बहन थी। आज अफगानिस्तान का जो कंधार है, वही पुराने समय मे गांधार प्रदेश कहलाता था। गांधारी महान शिव भक्तिनी थी और महादेव ने उसे 100 पुत्रों का वरदान प्रदान किया था।
गांधारी अद्वीतिय सुंदरी थी इसी कारण भीष्म ने धृतराष्ट्र के लिए सुबल से गांधारी का हाथ मांग लिया। जब गांधारी को ये पता चला कि धृतराष्ट्र नेत्रहीन हैं तो उसने भी अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली और आजीवन नेत्रहीन की भांति ही रही। शकुनि अपनी बहन से बहुत प्रेम करता था और उसने अपनी बहन की इस हालत के लिए भीष्म और कुरुवंश को ही उत्तरदायी माना और कुरुवंश के नाश की प्रतिज्ञा ले ली।
गांधारी कुंती से बहुत पहले ही गर्भवती हो गयी थी किन्तु बहुत काल बीतने पर भी गांधारी का प्रसव नही हुआ। उधर कुंती ने मंत्रबल से युधिष्ठिर को प्राप्त कर लिया। इससे गांधारी इतनी क्रोधित हुई कि उसने अपने गर्भ पर ही प्रहार किया जिससे उसने एक मांस के लोथड़े का प्रसव किया।
जब महर्षि वेदव्यास ने ये सुना तो उन्होंने उस मांसपिंड के 101 टुकड़े करवा कर 101 घी के घड़ों में रखवा दिए। समय आने पर उन घड़ों से 100 कौरव और दुःशाला का जन्म हुआ। उनमें दुर्योधन सबसे ज्येष्ठ था।
गांधारी का जीवन एक सच्चरित्र स्त्री का है। वो पतिव्रता थी किन्तु उसने सदैव धृतराष्ट्र और अपने पुत्रों को अन्याय करने से रोका। उसने कुंती के पुत्रों को अपनी संतान के समान ही प्रेम किया। वो एक विदुषी स्त्री थी और राज्य चलाने में भी धृतराष्ट्र का सहयोग किया करती थी। उसने सदैव धृतराष्ट्र और दुर्योधन को धर्म के मार्ग पर चलने को प्रेरित किया किन्तु ऐसा हो नही पाया।
गांधारी महाभारत के युद्ध से बहुत क्षुब्ध थी। जब केवल दुर्योधन युद्ध मे जीता बचा तब पुत्रमोह के वश उसने अपने पुत्र को अजेय बनाने का विचार किया। उसने दुर्योधन को नग्न अपने समक्ष बुलाया किन्तु श्रीकृष्ण ने अपनी चतुरता से उसे केले के पत्तों का छाल पहनवा दिया। जब दुर्योधन गांधारी के समक्ष आया तब गांधारी ने प्रथम बार अपनी आंखों की पट्टी खोली और अपने पुण्य की शक्ति से दुर्योधन का शरीर वज्र का बना दिया। केवल कटिभाग जो छाल से ढंका था वज्र का ना बन पाया और उसी कारण दुर्योधन की मृत्यु हुई।
महाभारत के युद्ध के लिए गांधारी ने श्रीकृष्ण को ही दोषी माना और उनके समस्त वंश के नाश का श्राप दे दिया। युद्ध समाप्त करने के बाद कई वर्ष तक धृतराष्ट्र और गांधारी हस्तिनापुर में ही रहे किन्तु फिर बाद में संन्यास ले कर दोनो वन को चले गए। कुंती भी उनके साथ गयी। वही वन में एक दिन आग लग जाने के कारण तीनों की मृत्यु हो गयी।