जून का महीना था, पढ़िये मज़ेदार कहानियाँ
जून का महीना था, दोपहर का समय और धूप कड़ी थी. ड्रिल-मास्टर साहब ड्रिल करा रहे थे.
मास्टर साहब ने लड़कों को एक लाइन में खड़े होकर डबल मार्च करने का ऑर्डर दिया. लड़कों की लाइन ने मैदान का एक चक्कर पूरा कर दूसरा आरम्भ किया था कि अनन्तराम गिर पड़ा.
मास्टर साहब ने पुकारा,‘हाल्ट!’
लड़के लाइन से बिखर गए.
मास्टर साहब और दो लड़कों ने मिलकर अनन्त को उठाया और बरामदे में ले गए. मास्टर साहब ने एक लड़के को दौड़कर पानी लाने का हुक़्म दिया. दो-तीन लड़के स्कूल की कापियां लेकर अनन्त को हवा करने लगे. अनन्त के मुंह पर पानी के छींटे मारे गए. उसे होश आते-आते हेडमास्टर साहब भी आ गए और अनन्तराम के सिर पर हाथ फेरकर, पुचकारकर उन्होंने उसे तसल्ली दी.
स्कूल का चपरासी एक तांगा ले आया. दो लड़कों के साथ ड्रिल मास्टर अनन्तराम को उसके घर पहुंचाने गए. स्कूल-भर में अनन्तराम के बेहोश हो जाने की ख़बर फैल गई. स्कूल में सब उसे जान गए.
लड़कों के धूप में दौड़ते समय गुरदास लाइन में अनन्तराम से दो लड़कों के बाद था. यह घटना और काण्ड हो जाने के बाद वह सोचता रहा, ‘अगर अनन्तराम की जगह वही बेहोश होकर गिर पड़ता, वैसे ही उसे चोट आ जाती तो कितना अच्छा होता?’ आह भरकर उसने सोचा, ‘सब लोग उसे जान जाते और उसकी ख़ातिर होती.’
श्रेणी में भी गुरदास की कुछ ऐसी ही हालत थी. गणित के मास्टर साहब सवाल लिखाकर बेंचों के बीच में घूमते हुए नज़र डालते रहते थे कि कोई लड़का नकल या कोई दूसरी बेजा हरक़त तो नहीं कर रहा. लड़कों के मन में यह होड़ चल रही होती कि सबसे पहले सवाल पूरा करके कौन खड़ा हो जाता है.
गुरदास बड़े यत्न से अपना मस्तिष्क कापी में गड़ा देता. उंगलियों पर गुणा और योग करके उत्तर तक पहुंच ही रहा होता कि बनवारी सवाल पूरा करके खड़ा हो जाता. गुरदास का उत्साह भंग हो जाता और दो-तीन पल की देर यों भी हो जाती. कभी-कभी सबसे पहले सवाल कर सकने की उलझन के कारण कहीं भूल भी हो जाती. मास्टर साहब शाबाशी देते तो बनवारी और खन्ना को और डांटते तो ख़लीक और महेश का ही नाम लेकर. महेश और ख़लीक न केवल कभी सवाल पूरा करने की चिन्ता करते, बल्कि उसके लिए लज्जित भी न होते.
नाम जब कभी लिया जाता तो बनवारी, खन्ना, ख़लीक और महेश का ही, गुरदास बेचारे का कभी नहीं. ऐसी ही हालत व्याकरण और अंग्रेज़ी की क्लास में भी होती. कुछ लड़के पढ़ाई-लिखाई में बहुत तेज़ होने की प्रशंसा पाते और कोई डांट-डपट के प्रति निर्द्वन्द्व होने के कारण बेंच पर खड़े कर दिए जाने से लोगों की नज़र में चढ़कर नाम कमा लेते. गुरदास बेचारा दोनों तरफ़ से बीच में रह जाता.
इतिहास में गुरदास की विशेष रुचि थी. शेरशाह सूरी और खिलजी की चढ़ाइयों और अकबर के शासन के वर्णन उसके मस्तिष्क में सचित्र होकर चक्कर काटते रहते, वैसे ही शिवाजी के अनेक क़िले जीतने के वर्णन भी. वह अपनी कल्पना में अपने-आपको शिवाजी की तरह ऊंची, नोकदार पगड़ी पहने, छोटी दाढ़ी रखे और वैसा ही चोगा पहने, तलवार लिए सेना के आगे घोड़े पर सरपट दौड़ता चला जाता देखता.
इतिहास को यों मनस्थ कर लेने या इतिहास में स्वयं समा जाने पर भी गुरदास को इन महत्वपूर्ण घटनाओं की तारीखें और सन् याद न रहते थे क्योंकि गुरुदास के काल्पनिक ऐतिहासिक चित्रों में तारीखों और सनों का कोई स्थान न था. परिणाम यह होता कि इतिहास की क्लास में भी गुरदास को शाबाशी मिलने या उसके नाम पुकारे जाने का समय न आता.
सबके सामने अपना नाम पुकारा जाता सुनने की गुरदास की महत्वाकांक्षा उसके छोटे-से हृदय में इतिहास के अतीत के बोझ के नीचे दबकर सिसकती रह जाती. तिस पर इतिहास के मास्टर साहब का प्राय: कहते रहना कि दुनिया में लाखों लोग मरते जाते हैं परन्तु जीवन वास्तव में उन्हीं लोगों का होता है जो मरकर भी अपना नाम जिन्दा छोड़ जाते हैं, गुरदास के सिसकते हृदय को एक और चोट पहुंचा देता.
गुरदास अपने माता-पिता की सन्तानों में तीन बहनों का अकेला भाई था. उसकी मां उसे राजा बेटा कहकर पुकारती थी. स्वयं पिता रेलवे के दफ्तर में साधारण क्लर्की करते थे. कभी कह देते कि उनका पुत्र ही उनका और अपना नाम कर जायेगा. ख्याति और नाम की कमाई के लिए इस प्रकार निरन्तर दी जाती रहने वाली उत्तेजनाओं के बावजूद गुरदास श्रेणी और समाज में अपने-आप को किसी अनाज की बोरी के करोड़ों एक ही से दानों में से एक साधारण दाने से अधिक अनुभव न कर पाता था.
ऐसा दाना कि बोरी को उठाते समय वह गिर जाये तो कोई ध्यान नहीं देता. ऐसे समय उसकी नित्य कुचली जाती महत्वाकांक्षा चीख उठती कि बोरी के छेद से सड़क पर उसके गिर जाने की घटना ही ऐसी क्यों न हो जाए कि दुनिया जान ले कि वह वास्तव में कितना बड़ा आदमी है और उसका नाम मोटे अक्षरों में अख़बारों में छप जाए. गुरदास कल्पना करने लगता कि वह मर गया है परन्तु अख़बारों में मोटे अक्षरों में छपे अपने नाम को देखकर, मृत्यु के प्रति विद्रूप से मुस्करा रहा है, मृत्यु उसे समाप्त न कर सकी.
आयु बढ़ने के साथ-साथ गुरदास की नाम कमाने की महत्वाकांक्षा उग्र होती जा रही थी, परन्तु उस स्वप्न की पूर्ति की आशा उतनी ही दूर भागती जान पड़ रही थी. बहुत बड़ी-बड़ी कल्पनाओं के बावजूद वह अपने पिता पर कृपा-दृष्टि रखनेवाले एक बड़े साहब की कृपा से दफ्तर में केवल क्लर्क ही बन पाया.
जिन दिनों गुरदास अपने मन को समझाकर यह सन्तोष दे रहा था कि उसके मुहल्ले के हज़ार से अधिक लोगों में से किसी का भी तो नाम कभी अख़बार में नहीं छपा, तभी उसके मुहल्ले के एक नि:सन्तान लाला ने अपनी आयु भर का संचित गुप्तधन प्रकट करके अपने नाम से एक स्कूल स्थापित करने की घोषणा कर दी.
लालाजी का अख़बार में केवल नाम ही प्रशंसा-सहित नहीं छपा, उनका चित्र भी छपा. गुरदास आह भरकर रह गया. साथ ही अख़बार में नाम छपवाकर, नाम कमाने की आशा बुझती हुई चिनगारियों पर राख की एक और तह पड़ गई. गुरदास ने मन को समझाया कि इतना धन और यश तो केवल पूर्वजन्म के कर्मों के फल से ही पाया जा सकता है. इस जन्म में तो ऐसे अवसर और साधन की कोई आशा उस जैसों के लिए हो ही नहीं सकती थी.
उस साल वसन्त के आरम्भ में शहर में प्लेग फूट निकला था. दुर्भाग्य से गुरदास के ग़रीब मुहल्ले में गलियां कच्ची और तंग होने के कारण, बीमारी का पहला शिकार, उसी मुहल्ले में दुलारे नाम का व्यक्ति हुआ.
मुहल्ले की गली के मुहाने पर रहमान साहब का मकान था. रहमान साहब ने आत्म-रक्षा और मुहल्ले की रक्षा के विचार से छूत की बीमारी के हस्पताल को फ़ोन करके एम्बुलेंस गाड़ी मंगवा दी. बहुत लोग इकट्ठे हो गए. दुलारे को स्ट्रेचर पर उठाकर मोटर पर रखा गया और हस्पताल पहुंचा दिया गया. म्युनिसिपैलिटी ने उसके घर की बहुत जोर से सफ़ाई की. मुहल्ले के हर घर में दुलारे की चर्चा होती रही.