माता लक्ष्मी की बहन अलक्ष्मी के बारे में आप क्या जानते हैं?

दीपावली के दिन देवी लक्ष्मी एवं श्रीगणेश के साथ कुबेर जी की भी पूजा की जाती है। उनकी उत्पत्ति समुद्र मंथन से बताई जाती है जिन्होंने समुद्र से निकलने के पश्चात नारायण को अपना वर चुना।

प्राचीन ग्रंथों में लक्ष्मी जी के साथ अलक्ष्मी (दरिद्रा) जी का भी उल्लेख मिलता है। अलक्ष्मी जी को नृति एवं दरिद्रा नाम से भी जाना जाता है। लक्ष्मी जी के प्रभाव का मार्ग धन-संपत्ति, प्रगति का होता है वही अलक्ष्मी जी दरिद्रता, पतन,अंधकार का प्रतीक होती है। एक बार लक्ष्मी और अलक्ष्मी में संवाद हुआ जिसमे दोनों एक दूसरे का विरोध करते हुए स्वयं को श्रेष्ठ बताने लगी।

लक्ष्मीजी ने कहा कि “देहधारियों का कुल शील और जीवन मैं ही हूँ और मेरे बिना वे जीते हुए भी मृतक के समान है।” अलक्ष्मी जी ने कहा कि “मैं ही सबसे बड़ी हूँ क्योंकि मुक्ति सदा मेरे अधीन है। जहाँ मै हूँ वहाँ काम, क्रोध, मद, लोभ, उन्माद, इर्ष्या और उदंडता का प्रभाव रहता है।” दरिद्रा की बात सुनकर लक्ष्मी जी ने फिर कहा – “मुझसे अलंकृत होने पर सभी प्राणी सम्मानित होते है। निर्धन मनुष्य जब दूसरों से याचना करता है तब उसके शरीर से पंच देवता, बुद्धि, श्री, लज्जा, शांति और कीर्ति तुरंत निकलकर चल देते है। गुण और गौरव तभी तक टिके रहते है जब तक कि मनुष्य दूसरों के सामने हाथ नहीं फैलता। अत: दरिद्रे! मै ही श्रेष्ठ हूँ।” तब अलक्ष्मी ने लक्ष्मी जी के दर्पयुक्त तर्क को सुनकर कहा – “बहन! मदिरा पीने से भी पुरुष को वैसा भयंकर नशा नहीं होता जैसा तेरे समीप रहने मात्र से विद्वानों को भी हो जाता है। योग्य, कृतज्ञ, महात्मा, सदाचारी, शांत, गुरू सेवा परायण, साधु, विद्वान, शूरवीर तथा तथा पवित्र बुद्धि वाले श्रेष्ठ पुरुषों में मेरा निवास है तथा मैं तेजस्वी सन्यासी मनुष्यों के साथ रहा करती हूँ।”

अब उनकी श्रेष्ठता का निर्णय कौन करे? इसके समाधान हेतु वे दोनों परमपिता ब्रह्मा के पास पहुँची और उनसे प्रार्थना की कि वे ही इसका निर्णय दें कि कौन श्रेष्ठ है। ब्रह्माजी ने कहा – “देवियों! पृथ्वी और जल दोनों देवियाँ मुझसे ही प्रकट हुई है और स्त्री होने के कारण वे ही स्त्री के विवाद को समझ सकती है। नदियों में भी देवी गंगा सर्वश्रेष्ठ हैं जो पीडाओं को हरने वाली तथा सबका संदेह निवारण करने वाली है। अतः आप दोनों उन्ही के पास जाएँ।”

ब्रह्मदेव के सुझाव देने पर दोनों गंगाजी (गोमती) के पास पहुँची और उन्हें ब्रह्मदेव की आज्ञा और अपनी समस्या बताई। तब गंगा के समक्ष दरिद्रा ने पुनः अपनी आत्मप्रवंचना की और कहा कि मुझे ज्ञात है कि मैं ही लक्ष्मी से श्रेष्ठ हूँ किन्तु अब जब ब्रह्मदेव ने हमें आपके पास भेजा है तो आप ही अपना निर्णय दें।” तब गंगा ने हँसते हुए कहा – “हे दरिद्रे! ब्रह्मश्री, तपश्री, यग्यश्री, कीर्तिश्री, धनश्री, यशश्री, विधा, प्रज्ञा, सरस्वती, भोगश्री, मुक्ति, स्मृति, लज्जा, धृति, क्षमा, सिद्धि, वृष्टि, पुष्टि, शांति, जल, पृथ्वी, अहंशक्ति, औषधि, श्रुति, शुद्धि, रात्रि, धुलोक, ज्योत्सना, आशी, स्वास्ति, व्याप्ति, माया, उषा, शिवा आदि जो कुछ भी संसार में विद्यमान है वह सब लक्ष्मी द्वारा ही व्याप्त है। ब्राह्मण, धीर, धीर, क्षमावान, साधु, विद्वान, भोग परायण तथा मोक्ष परायण पुरुषों में भी जो श्रेष्ठ एवं सुंदर है, वह लक्ष्मी का ही विस्तार है। अतः तुम्हारा देवी लक्ष्मी से स्पर्धा करना अनुचित है।”

ये कहकर गंगा ने देवी अलक्ष्मी को वहाँ से विदा किया। तभी से दरिद्रा ने देवी गंगा को अपना शत्रु माना एवं उनका जल दरिद्रा का शत्रु हो गया। कहते है कि तभी तक दरिद्रा का कष्ट उठाना पड़ता है जब तक गंगाजी के जल का सेवन न किया जाए। इसी कारण गंगास्नान एवं दान करने से दरिद्रता दूर भगति है और लक्ष्मी की उनपर कृपा होती है।

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