अनपढ़ व्यक्ति दुनिया का सबसे अमीर व्यक्ति कैसे बन सकता है ? जानिए

इंदौर में मेरे निवास से 20 कदम दूर एक कचोरी की दुकान होती थी जो अपनी “मूंग दाल कचोरी” के लिए पुराने शहरवासियों के बीच बहुत अधिक प्रसिद्ध थी।

दादाजी जब राजस्थान से इंदौर आये थे आज से करीब 100 वर्ष पहले उस समय भी यह कचोरी की दुकान इंदौर में यही इसी स्थान पर थी और अपनी कचोरियों के लिए प्रसिद्ध थी, तो आप ही सोचिए इसका अस्तित्त्व कितना पुराना है।

इस कचोरी की दुकान के संस्थापक अंगूठा टेक थे, देश की आजादी के पहले बहुतायत में जनता अनपढ़ रही है। किन्तु वो अक्षरों से अनपढ़ थे मन से नही।

उस ज़माने में भी उन्होंने अपनी कचोरी की दुकान के ऊपर कुछ कमरे बनवा लिए थे जिसमें आस-पास के गाँवो कस्बों से आये हुए विद्यार्थी निःशुल्क रहा करते और सुबह-शाम इन ज़रूरतमंद विद्यार्थियों के लिए संस्थापक महोदय कचोरी की दुकान में ही भोजन व्यवस्था करवा दिया करते।

उन्ही की परंपरा आगे बढ़ती गयी और निरंतर दो पीढ़ियों ने सेवाभाव के इस अनूठे कार्य को जीवंत रखा। मज़े की बात ये की ये दोनों जनरेशन भी बचपन से कचोरी के काम मे लग गए जिस वजह से नोटो में लिखी संख्या के अतिरिक्त कुछ भी पढ़ना लिखना इन्हें नही आया। पूरी तीन पीढियां अनपढ़ रही।

और कचोरी की लोकप्रियता के तो क्या कहने!

इनके यहाँ कचोरी खाने के लिए एक डेढ़ घंटे की वेटिंग चला करती थी। मुझे मेरे सुदूर बचपन याद आता है जब हर इतवार के दिन माँ नहला धुलाकर तैयार करके कचोरी लेने भेज दिया करती थी पूरे परिवार के लिए और मैं दीवानों जैसा घंटो अपनी बारी का इंतज़ार करता कचोरी लेने खड़ा रहता लेकिन नही…

एक बड़ी सी परात में 50–60 कचोरियों हर दस मिनट में आती और चुटकी बजाते फ़ुर्र! फिर 50–60 गर्मागर्म कचोरियों और फिर फ़ुर्र!

नही नही करते अनुमान लगाए तो 5 से 7 हज़ार कचोरियां विक्रय करना इनके लिए बड़ी मामूली सी बात थी।

तो साहब तीनो पीढ़ियों ने दोनों हाथों से धन बटोरा और हज़ारों ज़रूरतमंद छात्रों की एवं उनके परिवार की अनगिनत अनमोल दुआएँ कमाई, खूब प्रेम और सम्मान मिला जनता के द्वारा।

इन तीन पीढ़ियों में परिवार इतना बढ़ा की चौथी पीढ़ी के बच्चों की संख्या 15–17 के आस पास थी।

फिर आयी यही 15–17 बच्चों की 80 और 90 के दशक वाली पीढ़ी जिसको इन अनपढों ने कचोरी की दुकान के दम पर कैलिफ़ोर्निया से इंजीनियरिंग करवाई-ब्रिटेन से लॉ में ग्रेजुएशन करवाया-ऑस्ट्रेलिया से होटल मैनेजमेंट करवाया और विडंबना देखिए कि जितने बच्चे पढ़ने बाहर गए वो लौट के वापस ही नही आए।

लगभग सभी की अच्छी जगह नौकरियां लगी और भारतीय मापदंडों के अनुसार सभी के सभी करोड़पति के ब्रैकेट में आने लग गए।

वहीं शादियाँ हो गयी संताने हो गयी और ये स्वयं भी वही के हो गए।

भुला बैठे की किसके दम पर विदेशी नागरिकता का खोखला सुख प्राप्त कर रहे है। अभी साल 2017 की बात है जब परिवार के मुखिया की जिसने सब परिवार को एक सूत्र में जोड़े रखा था, उनका निधन हो गया।

इस घटना के कुछ समय सारे के सारे युवा बच्चे भारत आए और संपत्ति का बंटवारा हुआ। सबसे पहली गाज गिरी निःशुल्क चलने वाले विद्यार्थियों के कमरों पर और कचोरी की दुकान पर।

पिंड छुड़ाने की नीयत से आनन फानन में दुकान समेत सारे कमरे बेच दिए गए और बाक़ी की अनेको बहुमूल्य संपत्तियां जो तीन पीढ़ियों ने शहर भर में बनाई थी उन्हें भी औने पौने दामो में बेचकर थोड़ा सा धन अपने लाचार माँ-पिता को देकर बाक़ी का धन “इन्वेस्ट” करने अपने अपने विदेश ले गए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *