कन्यादान को महादान क्यों कहा जाता है? जानिए

हमारे ओड़िआ घरों में मार्गशिर महीना को लक्ष्मी जी की पूजा( माण वसा) हर घर में होता है प्रति बृहस्पति वार को । मेरी शादी के बाद इस्बार पहली बार था जब में अपने मातापिता के यहां थी। तो जिस दिन माण वसा हुआ आस पड़ोस बोऊ ( मां को ओड़िआ लोग बोउ बुलाते हैं) को बोले की बेटी और दामाद के लिए मंदिर से प्रसाद मंगवालो । क्यों की शादी के बाद लड़की पराई, एवं लक्ष्मी प्रसाद सिर्फ घर के सदस्यों को दिया जाना विधि है।

पूजा ख़तम होने के बाद बोऊ सबसे पहले मुझे एवं कार्तिक को बिठाई, और हम दोनों को घर में चढ़ाया हुए लक्ष्मी भोग खाने के लिए दिया। मुझे पता है मेरी मां कैसी है, इसलिए चुपचाप खाने लगी। लेकिन कार्तिक बोले कि

“बोऊ ! आप हम दोनों को कैसे लक्ष्मी प्रसाद दे लिए। नहीं दिया जाता है न?”

“मेरी बेटी ही मेरी लक्ष्मी है। और शादी होने से वो पराई कैसे हो गई। है तो मेरी ही बेटी न। आप जब से शादी किए, उस दिन से हमारा बेटा ही बना। भला खुद के घरवालों को कोई प्रसाद नहीं देता है क्या?”


बस यह पान और जल से लड़की की अस्तित्व उसके अपने मातापिता से अलग हो जायेगी और यह महादान कहलाएगा?

हद है !!!!

कन्यादान तथा उसको महादान, महापुण्य नाम देकर और और सियापा चढ़ाया गया है। यह प्रथा के नाम पर एक हम भारतीयों पर लादे जाने वाले और एक पुरुष कैंद्रिक दवाब है, जहां लोगों को समाज में नारी की स्थिति को लड़खड़ाते हुए देखना चाहते थे। लड़की कोई वस्तु नहीं या फिर उसका कोई मालिक नहीं जिसे दान किया जा सके। पितृ कैंद्रीक परिवारों में नारी जो अपना पिता घर छोड़ के आती है, वो किसी भी हाल पर अपने घर वापस न जा सके इस केलिए है तरह की कोशिश हमारे पुरुष प्रधान समाज की हुए हैं।

‘ लड़की पराया धन !’

‘ शादी के बाद शसुराल ही स्त्री की आखरी मंजिल ।’

‘ पतिसेवा न करने वाली महिला को नरक मिलना।’

‘ कन्यादान के बाद कन्या पर माता पिता का कोई हक नहीं।’

‘ लड़की के घर मायके वाले मेहमान तथा शासुराल में दामाद मेहमान।’

ऐसे ही हज़र बातें, हज़ार बकवास मिला जुला कर हमें पाट्रायेकी यह कहने की कोशिश करता है

” बिनाश्रये नवर्तंती कविता बनिता लताः।”

( अर्थात लड़की, कविता एवं लता यह तीन बिना आश्रय जी नहीं पाएंगे।)

लड़की और लता में फ़र्क न समझने वाले यह महान तर्क को क्या कहा जाए !

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