छत्तीसगढ में छेरछेरा पर्व क्यों मनाया जाता है? जानिए

अन्न दान का महापर्व छेरछेरा छत्तीसगढ़ में धूमधाम के साथ मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ में यह पर्व नई फसल के खलिहान से घर आ जाने के बाद मनाया जाता है। इस दौरान लोग घर-घर जाकर लोग अन्न का दान माँगते हैं। वहीं गाँव के युवक घर-घर जाकर डंडा नृत्य करते हैं।

लोक परंपरा के अनुसार पौष महीने की पूर्णिमा को प्रतिवर्ष छेरछेरा का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन सुबह से ही बच्चे, युवक व युवतियाँ हाथ में टोकरी, बोरी आदि लेकर घर-घर छेरछेरा माँगते हैं। वहीं युवकों की टोलियाँ डंडा नृत्य कर घर-घर पहुँचती हैं। धान मिंसाई हो जाने के चलते गाँव में घर-घर धान का भंडार होता है, जिसके चलते लोग छेर छेरा माँगने वालों को दान करते हैं।

इन्हें हर घर से धान, चावल व नकद राशि मिलती है। इस त्योहार के दस दिन पहले ही डंडा नृत्य करने वाले लोग आसपास के गाँवों में नृत्य करने जाते हैं। वहाँ उन्हें बड़ी मात्रा में धान व नगद रुपए मिल जाते हैं। इस त्योहार के दिन कामकाज पूरी तरह बंद रहता है। इस दिन लोग प्रायः गाँव छोड़कर बाहर नहीं जाते।

धान मांगने की परंपरा

जानकार मानते हैं कि ‘हमारे पूर्वजों ने खुद के अहंकार को मारने के लिए इस लोकपर्व की शुरुआत की थी’। माना जाता है कि देने वाला मांगने वाले से बड़ा होता है तभी तो इस दिन अपने आसपास के गली मोहल्लों में धान मांगकर हम अपने अहंकार को मार सकते हैं।

ग्रामीण इलाकों में छेरछेरा से मिले अनाज और राशि से गांव में छोटे मोटे सार्वजनिक काम किए जाते है या सार्वजनिक उत्सव ही मना लिया जाता है। पौष पूर्णिमा की सुबह आप ग्रामीण इलाकों में बाल टोलियों को ये कहते हुए सुन सकते हैं।

इस दिन सभी घरों में आलू चाप, भजिया तथा अन्य व्यंजन बनाया जाता है। इसके अलावा छे र- छेरा के दिन कई लोग खीर और खिचड़ा का भंडारा रखते हैं, जिसमें हजारों लोग प्रसाद ग्रहण कर पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं।

ज्योतिष वास्तुविद उद्घव श्याम केसरी के अनुसार इस दिन अन्नपूर्णा देवी की पूजा की जाती है। जो भी जातक बच्चों को अन्न का दान करते हैं, वह मृत्यु लोक के सारे बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। इस दौरान मुर्रा, लाई और तिल के लड्डू समेत कई सामानों की जमकर बिक्री होती है।

आज के दिन द्वार-द्वार पर ‘छेरछेरा, कोठी के धान ल हेरहेरा’ की गूँज सुनाई देगी। पौष पूर्णिमा के अवसर पर मनाए जाने वाले इस पर्व के लिए लोगों में काफी उत्साह है। गौरतलब है कि इस पर्व में अन्न दान की परंपरा का निर्वहन किया जाता है।

रामायण मंडलियों ने भी पर्व मनाने की खासी तैयारी की है और पंथी नृत्य करने वाले दल भी छेरछेरा का आनंद लेने तैयार हैं। पौष पूर्णिमा के पवित्र अवसर पर राज्यपाल ने बधाई दी है। उन्होंने प्रदेशवासियों के जीवन में खुशहाली की कामना भी की है।

यह उत्सव कृषि प्रधान संस्कृति में दानशीलता की परंपरा को याद दिलाता है। उत्सवधर्मिता से जुड़ा छत्तीसगढ़ का मानस लोकपर्व के माध्यम से सामाजिक समरसता को सुदृढ़ करने के लिए आदिकाल से संकल्पित रहा है।

इस लोकपर्व से जुड़ी हुई एक और कथा

इस पर्व के साथ एक कथा ये भी जुड़ी हुई है कि जिसे कौशल प्रदेश के राजा कल्याण साय ने मुगल सम्राट जहांगीर की सल्तनत में रहकर राजनीति और युद्धकला की शिक्षा ली थी। कल्याण साय लगभग आठ साल तक राज्य से दूर रहे। शिक्षा लेने के बाद जब वे रतनपुर आए तो लोगों ने उनका स्वागत किया। राजा की गैर मौजूदगी में उनकी पत्नी रानी फुलकैना ने आठ साल तक राजकाज संभाला था। इतने समय बाद अपने पति को पाकर रानी ने दोनों हाथों से सोने-चांदी के सिक्के प्रजा में लुटाए। इसके बाद राजा कल्याण साय ने उपस्थित राजाओं को निर्देश दिए कि आज के दिन को हमेशा त्योहार के रूप में मनाया जाएगा और इस दिन किसी के घर से कोई याचक खाली हाथ नहीं जाएगा।

लोकपर्व को छत्तीसगढ़ ने संजो कर रखा

छेर छेरा त्योहार के साथ और भी जन कथाएं जुड़ी है लेकिन सभी कथाओं में अन्न दान की परंपरा के निर्वहन पर जोर देता है। यही तो खुबसूरती है इस लोकपर्व की जिसे छत्तीसगढ़ के लोगों ने संजो कर रखा है।

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