पटाखों के फॉर्मूले की खोज कैसे हुई?

पूरी दुनिया मे नए साल पर भारी आतिशबाज़ी होती है। सभी पटाखों का फ़ॉर्मूला कमोबेश एक जैसा होता है- पोटेशियम नाइट्रेट, बारूद, गंधक और कोयला। लेकिन इनमें सबसे अहम घटक है बारूद।आइए जानते हैं बारूद के बारे में।

बारूद के बिना आतिशबाज़ी नहीं हो सकती। लेकिन ये बारूद क्या चीज़ होती है, इसकी खोज कैसे हुई और इसकी कहानी क्या है। माना जाता है कि आज से क़रीब 1500 वर्ष पूर्व भी चीन में बारूद का प्रचलन था। नौवीं सदी की एक घटना है। चीन के एक प्रांत में कुछ सैनिक एक पहाड़ से पीले रंग की एक मिट्‌टी एक टोकरी में भरकर शाही बग़ीचे में लेकर आए और एक जगह पर डाल दिया। संयोग से वहां पहले से कुछ कोयले के कण भी पड़े थे। अगले दिन तेज़ धूप निकलने पर उस स्थान पर ज़ोर का धमाका हुआ और तमाम पेड़-पौधे जलकर स्वाहा हो गए। वास्तव में वह पीली मिट्‌टी बारूद थी। लेकिन तेरहवीं सदी तक बारूद में छुपी क्षमताओं के प्रति चीनियों का ध्यान नहीं गया था, इस दिशा में यूरोपियनों ने दिमाग़ चलाया।

यूरोप के इतिहासकारों का मत है कि वास्तव में बारूद की खोज रोजर बेकन नामक रसायनविद् ने की थी। आरम्भ में बारूद का उपयोग जानवरों को डराने-धमकाने के लिए ही किया जाता था। लेकिन जैसे ही युद्धों और लड़ाइयों में बारूद के महत्व के बारे में जाना गया, इस पाउडरनुमा पदार्थ ने उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। 14वीं सदी का अंत आते-आते लड़ाई के मैदानों में बारूद का इस्तेमाल किया जाने लगा था। भारत में मुग़लों ने सबसे पहले बारूद का इस्तेमाल किया।

18वीं सदी में अल्फ्रेड नोबेल ने डाइनामाइट का आविष्कार कर विस्फोट के रास्ते आसान कर दिए। डाइनामाइट को गन पाउडर कहलाने वाली बारूद से अधिक विस्फोटक पाया गया था। 18वीं सदी के अंत में पोटेशियम क्लोरेट की खोज के बाद बारूद आतिशबाज़ी का साधन बन गई। दक्षिण भारत के शिवकाशी में प्रसिद्ध आतिशबाज़ी कारख़ाना है, जहां बारूद की मदद से पटाखे बनाए जाते हैं।

ये सच है कि बारूद और डाइनामाइट की ईजाद मनुष्य की उन्नति और आतिशबाज़ियों की ईजाद मन-बहलाव के लिए की गई थी, किंतु यह दु:खद है कि आज इनका इस्तेमाल विनाशात्मक और ध्वंसात्मक चीज़ों के लिए अधिक किया जाने लगा है।

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