पौराणिक महत्व के आधार पर केवल इन्ही चार स्थानों पर क्यों होता है कुंभ मेले का आयोजन,वजह जानकर चौक जाएंगे आप

कुंभ मेला हिंदू समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण पर्व एवं दुनिया भर में किसी भी धार्मिक प्रयोजन हेतु भक्तों का सबसे बड़ा आयोजन है। इसमें करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु कुंभ पर्व की जगह पर स्नान करने के लिए आते हैं। कुंभ का आयोजन भारतवर्ष में मुख्य रूप से चार स्थानों पर होता है। इनमें हरिद्वार, उज्जैन, प्रयागराज और नासिक शहर शामिल हैं। इनमे उज्जैन के कुंभ को सिंहस्थ भी कहा जाता है। कुंभ का पर्व हर 12 वर्ष के अंतराल पर चारों में से किसी एक पवित्र नदी के तट पर मनाया जाता है।

हरिद्वार में गंगा, उज्जैन में शिप्रा, नासिक में गोदावरी और इलाहाबाद में त्रिवेणी संगम जहां गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हैं। इन स्थानों पर एक-एक करके अर्धकुंभ का आयोजन किया जाता है। उदाहरण के तौर पर, प्रयागराज में कुंभ के आयोजन के तीन साल बाद हरिद्वार में कुंभ का आयोजन होगा तो उसके तीन साल बाद अगले स्थान का नंबर आएगा। इस तरह हर तीन साल बाद कुंभ का आयोजन होता है।

कुंभ मेला उज्जैन, नासिक, प्रयाग और हरिद्वार में मनाया जाता है। इन चार मुख्य तीर्थ स्थानों पर हर 12 साल के अंतराल में लगने वाले इस कुंभ पर्व में स्नान और दान करना अच्छा माना जाता है। इस मौके पर न सिर्फ हिंदू बल्कि दूसरे देशों से भी हिंदू समुदाय में विश्वास रखने वाले लोग स्नान करने के लिए आते हैं। शास्त्रों में लिखा है कि इस कुंभ पर्व के समय को वैकुंठ के समान पवित्र कहते हैं और इस दौरान त्रिवेणी में स्नान करने वालों को एक लाख पृथ्वी की परिक्रमा करने से भी ज्यादा और हज़ारो अश्वमेघ यज्ञों का पुण्य मिल जाता है। इस मेले में स्नान करने वाले को स्वर्ग दर्शन के समान माना जाता है।

कुंभ मेला तीन तरह का होता है। अर्ध कुंभ, कुंभ और महाकुंभ। आमतौर पर हर छह साल के अंतर में कुंभ का योग जरूर बन ही जाता है। इसलिए बारह साल में होने वाले पर्व को कुंभ और छह साल में होने वाले को अर्ध कुंभ कहते हैं।अर्ध कुंभ का आयोजन हर छह साल में किया जाता है और कुंभ का आयोजन हर बारह साल में होता है। जबकि महाकुंभ करीब 144 साल में एक बार लगता है। कुंभ का आयोजन बारह साल में इसलिए होता है क्योंकि ज्योतिषीय दृष्टिकोण से गुरु ग्रह एक राशि में करीब 1 साल रहते हैं। ऐसे में बारह साल बाद वह अपनी राशि में पहुंचते हैं। इसी साल कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। कुंभ मेलों के प्रकार:-

महाकुंभ मेला: यह केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है. यह प्रत्येक 144 वर्षों में या बारह पूर्ण कुंभ मेले के बाद आता है।

पूर्ण कुंभ मेला: यह हर बारह साल में आता है. मुख्य रूप से भारत में चार कुंभ मेला स्थान यानि प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित किए जाते हैं. यह हर बारह साल में इन चार स्थानों पर बारी-बारी आता है।

अर्ध कुंभ मेला: इसका अर्थ है आधा कुंभ मेला जो भारत में हर 6 साल में केवल दो स्थानों पर होता है यानी हरिद्वार और प्रयागराज।

कुंभ मेला: चार अलग-अलग स्थानों पर राज्य सरकारों द्वारा हर तीन साल में आयोजित किया जाता है. लाखों लोग आध्यात्मिक उत्साह के साथ भाग लेते हैं।

इस पर्व में जुटने वाली भीड़ को देखते हुए कुंभ आयोजन स्थान पर महिनों पहले से ही तैयारी शुरु कर दी जाती है। वैसे तो कुंभ मेले में स्नान का यह पर्व मकर संक्रांति से शुरु होकर अगले पचास दिनों तक चलता है, लेकिन इस कुंभ स्नान में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण ज्योतिष तिथियां होती हैं, जिनका विशेष महत्व होता है। यहीं कारण है कि इन तिथियों को स्नान करने के लिए भारी संख्या में श्रद्धालु तथा साधु इकठ्ठे होते हैं।

इन तिथियों को शाही स्नान भी कहा जाता है जैसे मकर सक्रांति, पौष पुर्णिमा, मौनी अमवस्या – इस दिन दूसरे शाही स्नान का आयोजन होता है, बसंत पंचमी – इस दिन तीसरे शाही स्नान का आयोजन होता है, माघ पूर्णिमा तथा महाशिवरात्रि – यह कुंभ पर्व का आखिरी दिन होता है। शाही स्नान के दौरान साधु-संत हाथी-घोड़ो सोने-चांदी की पालकियों पर बैठकर स्नान करने के लिए आते हैं। यह स्नान ए खास मुहूर्त पर होता है, जिसपर सभी साधु तट पर इकट्ठा होते हैं और जोर-जोर से नारे लगाते हैं। माना जाता है कि इस मुहूर्त में नदी के अंदर डुबकी लगाने से अमरता प्राप्त हो जाती है। यह मुहूर्त करीब 4 बजे शुरु हो जाता है। साधुओं के बाद आम जनता को स्नान करने का अवसर दिया जाता है। कुंभ मेले के दौरान आयोजन स्थल पर इन 50 दिनों में लगभग मेले जैसा माहौल रहता है और करोड़ों के तादाद में श्रद्धालु इस पवित्र स्नान में भाग लेने के लिए पहुँचते है।

कलश को कुंभ कहा जाता है। कुंभ का अर्थ होता है घड़ा। इस पर्व का संबंध समुद्र मंथन के दौरान अंत में निकले अमृत कलश से जुड़ा है। माना जाता है कि समुद्र मंथन में निकले अमृत कलश को लेकर जब धन्वंतरि प्रकट हुए थे तो अमृत के लिए देवताओं और दानवों के बीच में युद्ध हुआ था और जब अमृत भरा कलश लेकर देवता जाने लगे तो उसे 4 जगहों पर रखा था। इस वजह से अमृत की कुछ बूंदे गिर गई थी और ये चार स्थान हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन बने। वहीं एक मान्यता साथ में ये भी है कि अमृत के घड़े को लेकर गरुड़ उड़े गए थे और दानवों ने उनका पीछा किया था जिसमें छीना-झपटी हुई और घड़े से अमृत की बूंदें चार स्थानों पर गिर गई।

जिनपर बूंदें छलकी उन्हें प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन नाम से पहचाना जाता है। अमृत की ये बूंदें चार जगह गिरी थी:- गंगा नदी (प्रयाग, हरिद्वार), गोदावरी नदी (नासिक), क्षिप्रा नदी (उज्जैन)। सभी नदियों का संबंध गंगा से है। गोदावरी को गोमती गंगा के नाम से पुकारते हैं। क्षिप्रा नदी को भी उत्तरी गंगा के नाम से जानते हैं, यहां पर गंगा गंगेश्वर की आराधना की जाती है। इसलिए इन्हीं चार स्थानों पर कुंभ का मेला लगता रहा है जहां श्रद्धालु स्नान कर पुण्य प्राप्त करते है।

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