भगवान शिव के वाहन नंदी की क्या कहानी है? जानिए
तीनों लोकों को अपने इतिहास में समेटे सीतापुर के मिश्रित तीर्थ का उल्लेख वेदों, पुराणों, भागवत सहित अन्य कई ग्रंथों में भी मिलता है। भगवान शिव और त्रिपुराशुर के बीच हुए युद्ध के दौरान भगवान शिव के धरती भेदन के बाद उत्पन्न हुए सारस्वत तीर्थ से बनें मिश्रीत तीर्थ की पूरी कहानी बेहद आश्चर्य करने वाली है। जिसमें एक दो नहीं बल्कि साढ़े तीन करोड़ देवी देवता मिश्रीत आते हैं।
दरअसल महर्षि दधिची का सतयुग से अपना अलग स्थान है। एक बार की बात है जब भगवान शिव और त्रिपुराशुर में युद्ध हो रहा था। उसी दौरान उनके सारथी नंदी को प्यास लग गयी। शिव जी ने नंदी को जल पिलाने के लिए पृथ्वी को त्रिशूल से भेदा, जिससे पृथ्वी से तेज जल की धारा निकली। जिसको सारस्वत तीर्थ के नाम से जाना गया।
ऋग्वेद के अनुसार भगवान ब्रह्म के पौत्र और अथर्वा ऋषि की संतान महर्षि दधिची राजस्थान से सारस्वत तीर्थ में स्नान करने आये। दधिची जी ने यहीं भगवान शिव की उपासना की और जिसके फलस्वरूप दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने शिव की भक्ति से प्रसन्न होकर यहां आकर दधिची को महामृत्युंजय मन्त्र दिया था।
शिव महापुराण के अनुसार दस सहस्त्र दिव्य वर्षों तक शिव की भक्ति और आराधना के साथ धधिचेश्वर महादेव की तपस्या करने पर भगवान शिव ने महर्षि दधिची को इच्छा मृत्यु, ब्रजमय शरीर और जरायम मुक्त शरीर का वरदान दिया। इसी दौरान दानवों ने देवताओं पर हावी होना शुरू कर दिया और देवताओं के सिंघासन हिलने लगें। देवताओं को अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागना पड़ा। तभी देवताओं को महर्षि दधिची के वज्र शरीर का ज्ञान आया। देवताओं के राजा इंद्र ने मिश्रित आकर महर्षि दधिची से अपनी समस्या बताई और विश्व के कल्याण, शांति की स्थापना के लिये महर्षि दधिची से उनके शरीर की हड्डियां मांगी।
शरीर पर लगाया घी, नमक और फिर गायों ने चाटा
वृत्ताशुर दैत्य को मारने के लिए इंद्र ने महर्षि दधिची से उनकी अस्थियों की याचना की। जिस पर उन्होंने लोगों के जीवन की रक्षा के लिए अनुमति दे दी और अपने शरीर पर घी और नमक का लेप करा लिया। जिसके बाद इंद्र देवता की गायों ने उनके शरीर को चाट चाट कर हड्डियों को अलग कर दिया। जिसके बाद दधिची ने कहा कि सभी देवताओं की उपस्तिथि में विश्व के सभी तीर्थों का आह्वाहन किया जाये और सारस्वत को मिश्रित तीर्थ का नाम दिया जाए।
जब भगवान विष्णु में विलीन हुए दधिची
अस्थियों को देने के बाद प्राण छोड़ने से पहले भगवान ब्रम्हा ने कहा कि दधिची तुम महान हो, तुमको जो मांगना हो मांगो, इस पर दधिची बोले जब तक ये सृष्टि रहे तब तक ये तीर्थ बना रहें। इसके बाद भगवान विष्णु ने दधिची के प्राणों को अपने में समाहित कर लिया।
अथर्वा ऋषि के नाम पर है अर्थवेद
दधिची के पिता अथर्वा ऋषि के नाम पर ही अर्थवेद का नामकरण हुआ था। जैसा की वेदों में आया है।
भादव मास के शुक्ल पक्ष में हुआ था जन्म
महर्षि दधिची का जन्म राजस्थान में हुआ था। भादव मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को दधिची भगवान धरती पर अवतरित हुए थे।
हड्डियों से बनें वज्रों का किया इन ने उपयोग
महर्षि दधिची की हड्डी से चार प्रकार के अस्त्र तैयार हुए जिनमें गांडीव, पिनाक, सारंग और ब्रजशक्ति थे। गांडीव का प्रयोग अग्नि देव और महाभारत में अर्जुन ने किया था। पिनाक को भगवान श्रीराम ने सीता जी के स्वयंवर में तोड़ा था। सारंग का प्रयोग मां दुर्गा ने महिषासुर का वध करने के लिए किया और ब्रजशक्ति से इंद्र ने वृत्तासुर का संहार किया। बताया जाता है की सारंग अभी भी भगवान विष्णु के पास है इसीलिए उनको सारंगी भी कहा जाता है।