रेल गाड़ी का ड्राइवर बहुत धुंध मे भी सिग्नल कैसे देख लेता है ?

रेल गाड़ी का ड्राइवर भी एक आम इंसान है, उसके पास बहुत घने कोहरे में सिग्नल देखने के लिए कोई खास शारीरिक योग्यता या यूं कहें कि कोई विशेष परालौकिक शक्ति जैसे कि तीसरी आँख या छठी इंद्रीय (sixth sense) नहीं मिली हुई है। अगर ऐसा होता तो एक तो घने कोहरे के मौसम में रेल गाड़ियाँ विलम्ब से न चलतीं, और दूसरे रेल के इतिहास में कुछ एक ऐसी दुर्घटनाएं हुई हैं जिनके लिए घना कोहरा जिम्मेदार था, वो न हुई होतीं।

बेशक ये बात सही है कि रेलवे के ड्राइवर को भर्ती से लेकर 45 वर्ष की उम्र तक हर 4 साल बाद पूर्ण शारीरिक चिक्तिसा जाँच, जिसमे आंखों की जांच पर विशेष ध्यान दिया जाता है, से गुजरना पड़ता है। और फिर 55 वर्ष की उम्र तक हर दो साल बाद और 55 के बाद अवकाश प्राप्ति तक प्रत्येक वर्ष ऐसी चिकित्सा जांच की जाती है। अच्छे-बुरे मौसम एवं विषम परिस्थितियों में लगातार कार्य करते हुए समय के साथ वह इतना कुशल तो हो ही जाता है कि और व्यक्तियों को जो सिग्नल एवं अन्य संकेत सामान्य मौसम में भी बहुत नजदीक आने पर दिखाई देते हैं, उन्हें थोड़े-बहुत खराब मौसम में भी पर्याप्त दूरी से देख कर उपयुक्त कार्यवाही करने की क्षमता हासिल कर लेता है। ठीक अर्जुन का निशाना और चिड़िया की आँख वाली कहानी की तरह।

लेकिन घने कोहरे के मौसम में जब हाथ को हाथ नही दिखाई देता तब सिग्नलों एवं अन्य संकेतों को ठीक से देखने के लिए ड्राइवर के पास ट्रेन की रफ्तार धीमी करने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता, जो कि नियमानुसार ऐसे मौसम में सुरक्षित ट्रैन संचालन के लिए जरूरी भी है। क्योंकि दर्घटना से देर भली। अतः कोहरे के मौसम में ड्राइवर को कम गति पर संचालन के आदेश हैं। ये गति किसी भी सूरत में 60 किमी प्रति घण्टा से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। और यदि कोहरे की तीव्रता अधिक है या आगे कोई सुरंग या ब्रिज या कटिंग वगैरह है, या पिछले सिग्नल का आस्पेक्ट एक पीली रोशनी था जिसका मतलब अगला सिग्नल लाल (खतरा) है तो ड्राइवर अपने विवेकानुसार लगभग रेंगते हुए भी चल सकता है।

अन्य मौसमो की तरह घने कोहरे के मौसम से निबटने के भी रेलवे पूर्व तैयारियां करती है, जिसके अंतर्गत अलग-अलग विभाग अपने-अपने हिस्से के काम सम्हालते हैं। जैसे सिग्नलिंग विभाग ऐसे सभी सिग्नल जो कम रोशनी के साथ जल रहे हैं, उन पर विशेष ध्यान देते हुए उपयुक्त व्यवस्था करता है ताकि वे धुंध और कोहरे में आसानी से देखे जा सकें। वैसे तो आजकल सभी सिग्नलों में पुराने समय के फिलामेंट बल्बों की जगह एल ई डी लगाई गई हैं, जिससे सिग्नलों की दृश्यता दूरी अच्छी-खासी बढ़ गई है। फिर भी सिग्नलों के कांच वगैरह की साफ-सफाई इत्यादि पर भी ध्यान दिया जाता है।

इंजीनियरिंग और ओ एच ई विभागों द्वारा लगाए गए संकेत एवं बोर्डों को चमकीले (फ्लोरोसेंट) रंगों के साथ लगाया जाता है, जिससे वे रात के समय और घने कोहरे में लाइट पड़ने पर दूर से ही चमकते हैं।

लोको शेड विभाग द्वारा सुनिश्चित किया जाता है कि सभी लोको पर लुक आउट गिलासअच्छी तरह साफ किये गए हैं, वाइपर भली-भांति चालू अवस्था मे हैं। हेड लाइट एवं मार्कर लाइट ठीक प्रकार से कार्य कर रही हैं, उनके कांच व्यवस्थित तरीके से साफ किये गए हैं, हेड लाइट की तीव्रता और फोकस ठीक प्रकार से एडजस्ट किये गए हैं। साथ ही हॉर्न एवं सैंडरों को भी ठीक प्रकार से काम करने के लिए जाँचा जाता है। ड्राइवरों को भी शेड से इंजन निकलते समय या फिर कहीं सेक्शन या यार्ड इत्यादि में चार्ज लेते समय इन सब मदों को ठीक से जांच करने के बारे में आदेश दिए जाते हैं। आखिरकार घने कोहरे के खिलाफ जंग में यही सब उसके हथियार हैं।

प्रत्येक ऐसे स्टेशन पर जहाँ वर्ष में कभी भी धूल भरी आंधी या कोहरे का मौसम रहता है, दृश्यता परीक्षण लक्ष्य स्थापित किये जाते हैं। जिसके अंतर्गत किसी पुराने लोहे के स्लीपर को खड़ा करके लगाया जाता है या फिर किसी सिग्नल के पीछे की तरफ या ओ एच ई के खम्बे पर एक निश्चित भाग को तिरछी काली एवं पीली पट्टियों से रंगा जाता है, जो रात में रोशनी पड़ने पर चमकें भी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *