वह व्यक्ति कौन-था जिसने स्वामी दयानंद सरस्वती को जहर दिया था?

वह व्यक्ति एक वेश्या थी. नाम था नन्ही जान और शहर था जोधपुर. ज़िस राजा को पसंद थी और राजा स्वयं नन्हीजाण कि पालकी को अपने महल से आते जाते कन्धा देते थे ये थे जोधपुर नरेश महाराज यशवंत सिँह. नन्हीजाण का यही रुतवा और राजा का ये सम्मान देना एक वेश्या को बस यही कारण था जहर का और स्वामी जि कि वेबक स्वभाव तथा सत्य मार्ग का अनुशरण. अगर स्वामी जि थोड़ा सा लचीला रुख अपनाते तो जान जहर से न जाती. दिन ज़ब जहर दिया रसोईये जगन्नाथ ने जो षणयंत्र में शामिल हो गया था नन्हीजाण के, 29 सितंबर 1883. एक माह तक स्वामी जहर से लड़ते रहे जोधपुर से माउन्ट अबू और फिर अजमेर भेजे गए. जहर दूध में दिया गया. 30 अक्तूबर 1883 को जहर के असर से हि स्वर्ग गमन कर गए. स्वामी जि ने राजा को शेर और वेश्या को कुटिया जैसा कहा और उपदेश दिया कि शेर को शेरनी का हि गमन करना चाहिए कुतिया का कभी नहि. नन्हीजाण जो इतनी मशहुर थी अपना अपमान सह न सकी और षणयंत्र कर स्वामी जि को जहर दिलवा दिया.

स्वामी जि जोधपुर महाराज यशवंत सिंह के बुलाने पर हि आये थे और इससे पहले महाराज उदयपुर को वैदिक धर्म मानने के लिए समझा चुके थे. मूरति पूजा का विरोध, पाखंड, बली प्रथा जातिवाद के विरोधी थे. यही सब चीज़े उन दिनों उनके विरोध और प्रसिद्धि का कारण थी.

स्वामी जि का जन्म काठियावाड़ के के मोरवी राज्य के एक गांव टंकारा में 1824 में औदित्य ब्राह्मण पंडित अम्बाशंकर के घर हुआ. जन्म नाम मूलशंकर था. 14 वर्ष कि आयु में यजुर्वेद कंठस्थ कर लिया. फिर शिव जि पूजा करते हुये मूरति पूजा से ध्यान उच्तट गया और 21 वर्ष कि आयु में घर वालों के शादी आदि करने कि बातों और सांसारिक झंझटो में फंसने आदि को न मानकर घर छोड़कर चल दिए सन 1845 में. 15 वर्ष जिज्ञासु बनकर सन्यासी रहे जंगलों में भटके और स्वामी पूर्णानंद सरस्वती जि से मथुरा में शिष्यत्व ग्रहण करने कि प्रार्थना कि. उन्होंने अपने शिष्य विरजानन्द सरस्वती जि के पास भेजा. 1860 में विरजानन्द जि के शिष्य बने और उनसे वैदिक धर्म और वेदों कि शिक्षा लि तथा गुरु दक्षिणा में वेदो पर आधारित समाज बनाने कि प्रतिज्ञा कर उस दिशा में काम किया.

1855 -1858 तक देश कि स्वतंत्रता हेतु स्वामी पूर्णानंद सरस्वती जि के अगुवाई में मथुरा में देश के अंग्रेज विरोधी गुट का समर्थन किया और सबको एकत्रित कर बैठक कराई. इस बैठक में रजवाड़ों के प्रतिनिधि जैसे नाना साहेब, झाँसी, मुग़ल बादशाह, लखनऊ के नवाब, बल्लभगढ़, मेरठ के सैनिक आदि ने भाग लिया और योजनाबद्ध तरिके से अंग्रेजो के विरुद्ध विद्रोह पर योजना बनी. रोटी का सन्देश यही से फैला. योजना वनायी विद्रोह कि जिससे 1857 में विद्रोह हुआ.

1875 में बंबई में आर्य समाज कि स्थापना कि. आर्य समाज कि स्थापना दस अप्रैल 1875 में कि. सत्य हि सबसे बढ़ा माना गया, असत्य छोड़ना और समाज कि भलाई मुख्य आदर्श रखे गए. आर्य समाज के मुख्य सिद्धांत निर्धारित किये. कूल 28 नियम, उपनियम बनाये जिनको दस नियमों में बदलकर साधारण लोगो के पालन हेतु सुगम सरल बनाया. वेदों को मानो. सत्य को जानो और जो सत्य है उसे हि अपनाओ. जो सत्य नहि है उसे छोडो. मूरति पूजा विरोधी बने. पाखंड छोडो. शराब मांसाहार, परस्त्रीगमन, वेश्यागमन, नशाखोरी और पितृ पक्ष आदि को छोडो. सिर्फ भगवान को मानो जो सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान सर्वत्र सर्वव्यापी है उसे हि मानौ आदि उपदेश दिए और आर्य समाज प्रतिष्ठित कि. मूरति पूजा विरोध पितृ पूजन, विभिन्नदेवों कि पूजा का विरोध हि पंडितों डोंगियों पाखंडियों द्वारा इनके विरोध का मुख्य कारण रहा.

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