सीता स्वयंवर की कठोर प्रतिज्ञा ऐसी कि पूरा होना लगता था मुश्किल मगर…

त्रेतायुग का ये वृतान्त उस समय का है जब राजा जनक ने अपनी लाडली पुत्री सीता की शादी के लिए अनोखी शर्त रखी उनकी ये प्रतिज्ञा थीं कि, ” जो कोई भी भगवान भोलेनाथ के भारी और कठोर धनुष को उठाकर उसकी प्रत्यंचा चढ़ा देगा उसी के साथ सीता का स्वयंवर रचाया जाएगा।”

राजा जनक की प्रतिज्ञा को सुनकर स्वयंवर में उपस्थित सभी राजा सीता को पाने के लिए ललचा उठे थे। एक एक करके सबने शिव धनुष को उठाने का प्रयत्न किया मगर सफल नहीं हो पाए, फिर एक साथ पूरे दस हजार राजाओं ने मिलकर धनुष उठाने की कोशिश की किन्तु वे धनुष को तिलभर हिला तक न सके।

“भूप सहस दस एकहि बारा।लगे उठावन टरइ न टारा ।।”

तब राजा जनक अत्यधिक दुःखी हो उठे और क्रोध में आकर बोले-

द्वीप-द्वीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो प्रण ठाना।।

रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भर भूमि न सके छुड़ाई।।

अब जनि कोउ माखै भट मानी। वीर विहीन मही मैं जानी।।

तजहु आस निज निज गृह जाहु। लिखा न विधि वैदेही विवाहू।।

राजा जनक के इन कठोर शब्दों को सुनकर लोग बड़े दुःखी हो गए किन्तु सभा में बैठे राजकुमार लक्ष्मण से न रहा गया , उन्होंने श्रीराम चन्द्र जी को प्रणाम कर , क्रोध में आकर कहा-,” राजा जनक ने बड़ी ही अनुचित बात कही है।

हे भ्राता ! अगर आप मुझे आज्ञा दे दें तो मैं इस सारे ब्रह्माण्ड को ही गेंद की तरह फोड़ डालूँ। मैं सुमेरु पर्वत को मूली की तरह तोड़ डालूँ। हे भगवन ! आपके प्रताप से फिर यह बिचारा पुराना धनुष तो चीज ही क्या है।

सुनहु भानुकुल पंकज भानु। कहउ सुभाउ न कछु अभिमानु।

जौं तुम्हार अनुसासन पावौं।कन्दुक इव ब्रह्माण्ड उठावौं।।

काचे घट जिमि डारौं फोरी।सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी।।

तव प्रताप महिमा भगवाना।को बापुरो पिनाक पुराना।।

लक्ष्मण जी के इन क्रोध भरे वचनों को सुनकर सारी दिशाओं में कम्पायमान हो उठा, धरती डोलने लगी, लक्ष्मण तब श्रीराम चन्द्र जी का संकेत पाकर बैठ गये। फिर विश्वामित्र की आज्ञा लेकर रामचंद्र जी धनुष उठाने के लिए उठ खड़े हुए। उन्होंने गुरु को मन ही मन प्रणाम किया और पलक झपकते ही धनुष को उठा लिया, किसी को पता तक नहीं चला कि कब भगवान श्रीराम ने धनुष उठाया उसकी डोरी चढ़ायी और वो टूट गया।

जय श्रीराम आज की कथा वृतान्त में इतना ही आगे भी ऐसी कथाएं अवश्य लिखूँगा।

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