स्वामी विवेकानंद संन्यासी होने के बावजूद भी मांसाहारी क्यों थे?

“मछली और मांस खाने की चाहत मिट जाती है जब शुद्ध सात्विकता का विकास होता है; यह आत्म की तरफ बढ़ने का संकेत है।” – स्वामी विवेकानंद

यह बात सत्य है कि स्वामी विवेकानंद बंगाली कायस्थ परिवार से थे और मांस मछली खाते थे। विवेकानंद जी ने मांसाहार का विरोध नहीं किया। उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस भी मछली खाते थे।

मुझे मेरे स्कूल टाइम में यह नहीं पता था कि स्वामी जी मांसाहारी थे। जब बाद में मुझे पता लगा तो मुझे बड़ा अजीब लगा और एक हद तक स्वामी जी के लिए मेरे मन में घृणा पैदा होने लगी। इसका कारण था कि मैं कट्टर शाकाहारी परिवार से हूं।

कुछ बरसों बाद इंटरनेट सर्फिंग के दौरान विवेकानंद की शिकागो स्पीच पढ़ी जो अंग्रेजी में है। इसे पढ़कर मैं बहुत प्रभावित हुआ और विवेकानंद के प्रति फिर से रुझान बढ़ गया। फिर मैंने इधर उधर से विवेकानंद की स्पीचिज पढ़ीं। आज तो यह विकिपीडिया पर भी उपलब्ध है। कोई भी फ्री में पढ़ सकता है-

स्वामी जी का जीवन पाखंड रहित था। उनका मानना था की अगर मानव जाति को जीने के लिए मांस खाने की आवश्यकता है तो यह गलत नहीं है। गलत तो यह है कि सत्य की खोज में तरह-तरह के पाखंड को साथ लेकर चलना। सत्य की खोज के लिए सत्य को स्वीकार करने की क्षमता होनी चाहिए।

विवेकानंद जी अपने जीवन में बहुत व्यस्त रहे उन्होंने पश्चिमी देशों के लिए सभी दर्शनों की तुलनात्मक व्याख्या की और हिंदू दर्शन से उनका परिचय कराया। व्यस्तता के कारण, स्वामी जी को जहां जैसा भोजन मिल जाता था वैसा खा लेते थे।

ध्यान करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। शुरुआती चरण में ध्यान में ऊर्जा की बहुत खपत होती है। यह भी कारण हो सकता है कि स्वामी जी ने मांसाहार का विरोध नहीं किया।

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