किसानों के प्रति खुशहाली की राह खुलने की जगी उम्मीद

किसानों के प्रति सहानुभूति रखने वाले अधिकांश नेताओं, कृषि अर्थशास्त्रियों और बुद्धिजीवियों की ओर से अक्सर यह प्रतिक्रिया मिलती रही है कि एक छोटे से छोटे उद्योगपति को भी अपने उत्पादों की कीमत तय करने का हक होता है, लेकिन हमारे देश में किसान को यह हक नहीं है। देखा जाए तो हाल में तीन कृषि कानून इसी आकांक्षा की पूíत करते हैं। इन कानूनों के चलते अब किसान न केवल अपने उत्पादों को मंडी में या मंडी के बाहर कहीं भी बेच सकता है, बल्कि वह अपने उत्पादों की कीमत भी खुद ही तय कर सकता हैकिसान को अब तक के इतिहास में पहली बार यह आजादी मिली है कि वह अपने उत्पाद की कीमत खुद तय करे और साथ ही उस जहां मन करे या अधिक मूल्य मिले, उसे बेच सके।

पूरा देश उसके उत्पादों के लिए बाजार बना दिया गया है, कोई चुंगी नहीं, कोई सरहद नहीं, कोई बाधा नहीं। बावजूद इसके इन कानूनों का विरोध करने वाले महज विरोध करने के लिए वही पुराना राग अलापे जा रहे हैं कि ये किसानों को कॉरपोरेट का गुलाम बना देंगे। जबकि हैरानी की बात यह है कि न तो पहले से चली आ रही मंडी व्यवस्था खत्म हुई है और न ही खत्म किए जाने का कोई इन कानूनों के चलते भविष्य में प्रावधान है। फिर भी यह भ्रम बनाया जा रहा है कि इन कानूनों के बाद मंडियां खत्म हो जाएंगी और किसानों को अपने उत्पाद मजबूर होकर औने पौने दामों में कॉरपोरेट के हवाले करना होगादरअसल इन नए कृषि कानूनों से गिनती के ही कुछ राज्यों में किसानों की एक खास लॉबी खफा है, क्योंकि मंडी व्यवस्था के तहत सरकार द्वारा खरीदे जाने वाले गेहूं और धान का करीब 80 फीसद हिस्सा यही लॉबी बेचती है। इसी लॉबी को यह लग रहा है कि इन कानूनों के अमल में आने के बाद बाद देशभर के किसानों के लिए बड़ा बाजार उपलब्ध हो जाएगा, तो कहीं उन्हें अब तक जो सुविधा मिली हुई थी, उसमें किसी किस्म की बाधा न आ जाए। वास्तव में इस विरोध में सारी ताकत इन्हीं लाभान्वित लोगों की है। जबकि देश में किसानों की संख्या करीब 16 करोड़ है और कृषि मंडियों में किसानों का महज चार प्रतिशत अनाज ही बिकता है। बावजूद इसके मंडी व्यवस्था को मंडियों से अधिकाधिक लाभान्वित होने वाले किसान यह माहौल बनाने में तुले हैं कि मौजूदा कानून किसानों के विरोध में है।

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