जानिए इस अनोखे द्रव्य के बारे में और इसके फायदे
भिलावे को भेला भी कहते हैं। यह वृक्ष स्वरूप का है।गुण और प्रयोग-भिलावा उष्ण, रसायन, मेध्य, वाजीकर, वातकफहर, मूत्रजनन, वातनाडीबल्य,अग्निवर्धक, व्रणोत्पादक एवं कुष्ठघ्न है। इसका प्रचूषण बहुत जल्दी होता है लेकिन उत्सर्ग बहुत देर में होता है। आमाशय एवं उत्तरगुद पर इसकी विशेष क्रिया होती है। यकृत् पर उत्तेजक क्रिया होने से पित्तस्राव ठीक होता है जिससे भूख बढ़ती है एवं रक्ताभिसरण क्रिया ठीक होने से अर्श में लाभ होता है। त्वचा से उत्सर्ग के समय स्वेद आता है तथा त्वचा लाल हो जाती है।
वृक्क पर उत्तेजक प्रभाव होने के कारण प्रारम्भ में मूत्र की मात्रा बढ़ती है लेकिन बाद में कम हो जाती है तथा कभी-कभी मूत्र में खून भी आ जाता है। इसका वाजीकर प्रभाव वातनाड़ियों की उत्तेजना से एवं प्रत्यक्षतया मूत्रनलिका के प्रक्षोभ से होता है। प्रत्यक्ष माँसपेशियों की अपेक्षा वातनाड़ियों को बल प्राप्तहोने से यह अनेक वातरोगों में लाभदायक है। इससे नाड़ी की गति बढ़ती है तथा हृदय का कार्य भी ठीक होने लगता है। रसग्रन्थियों की उत्तेजना से श्वेतकणों की वृद्धि होती है जिससे शोथ आदि में लाभ होता है।
इस प्रकार शरीर की सभी क्रियाएँ ठीक होने से योग्य रूप में सेवन से इसको अमृत के समान लाभदायक एवं रसायन मानते हैं। बाह्य त्वचा पर भिलावे का तेल लगने से त्वचा काली होकर जलन होती है एवं फोड़े होकर व्रण उत्पन्न होते हैं। उचित रूप में प्रयोग करने से आन्तरिक प्रयोग में इस प्रकार के लक्षण नहीं होते। इसका उपयोग अर्श, वातविकार, कफविकार, फिरंग, गण्डमाला, कृमि, विसूचिका, गुल्म, आमवात एवं कुष्ठ आदि रोगों में किया जाता है।
- भिलावे को दीपक पर गरम करने से जो तैल टपकता है वह दूध में टपकाकर हरिद्रा एवं मिश्री मिलाकर फुफ्फुस विकारों में रात के समय दिया जाता है। प्रारम्भ में एक बूंद तथा धीरे-धीरे इसे बढ़ाते हैं। तमक श्वास पीड़ित रोगियों के लिये शीत ऋतु में इसका नित्य प्रयोग लाभदायक है। उपजिव्हा की शिथिलता से उत्पन्न कास में भी इससे लाभ होता है। फुफ्फुस पाक में मुलेठी के साथ भिलावा दिया जाता है।
- अग्निमांद्य, कुपचन, आनाह, विबन्ध, अर्श, उदर, गुल्म एवं विसूचिका आदि रोगों में इसका बहुत प्रयोग किया जाता है। इससे स्निग्ध पदार्थों का पाचन अच्छी तरह से होता है। अर्श में भिलावा, हरड़ एवं तिल समान मात्रा में लेकर दाने गुड़ के साथ गोली बनाकर 3-6 ग्राम खिलाते है तथा इसका धुआँ भी दिया जाता है। हैजे में एक भिलावे को 5 ग्रा. इमली के साथ पीसकर 20 मि.ली. लहसुन के रस के साथ पिलाते है।
- रसायन के लिये 1 भिलावे को काटकर 16 गुने जल में उबाल कर आधा रहने पर फिर 8 गुना दूध मिलाकर फिर उबाले तथा आधा शेष रहने पर उस क्षीर को छानकर 10-20 मि.ली. की मात्रा में प्रयोग करें। इसके पूर्व थोड़ा सा घी मुख में चारों तरफ लगा देना चाहिये तथा थोड़ा सा घी निगलना भी चाहिये । प्रत्येक वर्ष, शीत ऋतु में इसका उपयोग करने से किसी प्रकार के रोग नहीं होने पाते।
- वातनाडी शोथ, गृध्रसी, अर्दित, अंगघात, ऊरुस्तम्भ, मस्तिवरण की आवरण तथा मानसिक कार्य अधिक करने के कारण उत्पन्न थकावट में इसको इमली की पत्ती, लहसुन, नारियल का रस एवं मिश्री के साथ खिलाते है।
- भिलावा 1 भाग, काजू 6 भाग एवं शहद 1 भाग अच्छी तरह घोटकर 2 ग्राम दिन में 4 बार देने से नूतन तथा तीव्र आमवात में दो-तीन दिन में ही लाभ होता है। जीर्ण आमवात में विशेष लाभ नहीं होता है।
- गण्डमाला के लिये भिलावा 2, अजवायन 2 एवं पारद इसको घोंटकर चने बराबर इसकी गोली दही के साथ खिलाई जाती है।
- इसके तेल का आंतरिक एवं बाह्य प्रयोग किया जाता है। एक से दो बूंद तैल किसी अन्य तिलादि तैल में मिलाकर फिरंग, गण्डमाला, कुपचन, अर्श, नाडी दौर्बल्य, चर्मरोग, कृमि, अपस्मार, अंगपात, आमवात एवं वास आदि रोगों में दिया जाता है।