तानसेन अपने गुरु से अच्छा क्यों नहीं गा पाते थे? उनका वैज्जु वावरा से क्या संबंध था?
अकबर ने एक दिन तानसेन को कहा, तुम्हारे संगीत को सुनता हूं, तो मन में ऐसा ख्याल उठता है कि तुम जैसा गाने वाला शायद ही इस पृथ्वी पर कभी हुआ हो और न हो सकेगा. क्योंकि इससे ऊंचाई और क्या हो सकेगी. इसकी धारणा भी नहीं बनती. तुम शिखर हो. लेकिन कल रात जब तुम्हें विदा किया था, और सोने लगा तब अचानक ख्याल आया. हो सकता है, तुमने भी किसी से सीखा है, तुम्हारा भी कोई गुरू होगा. तो मैं आज तुमसे पूछता हूं. कि तुम्हारा कोई गुरू है? तुमने किसी से सीखा है?
तो तानसेन ने कहा, मैं कुछ भी नहीं हूं गुरु के सामने, जिससे सीखा है. उसके चरणों की धूल भी नहीं हूं. इसलिए वह ख्याल मन से छोड़ दो. शिखर? भूमि पर भी नहीं हूं. लेकिन आपने मुझ ही जाना है. इसलिए आपको शिखर मालूम पड़ता हूं. ऊँट जब पहाड़ के करीब आता है, तब उसे पता चलता है, अन्यथा वह पहाड़ होता ही है. पर तानसेन, ने कहां कि मैं गुरु के चरणों में बैठा हूं; मैं कुछ भी नहीं हूं. कभी उनके चरणों में बैठने की योग्यता भी हो जाए, तो समझूंगा बहुत कुछ पा लिया.
तो अकबर ने कहा, तुम्हारे गुरु जीवित हों तो तत्क्षण, अभी और आज उन्हें ले आओ. मैं सुनना चाहूंगा.
पर तानसेन ने कहा: यही तो कठिनाई है. जीवित वे है, लेकिन उन्हें लाया नहीं जा सकता हे.
अकबर ने कहा, जो भी भेट करना हो, तैयारी है. जो भी. जो भी इच्छा हो, देंगे. तुम जो कहो, वहीं देंगे. तानसेन ने कहा, वही कठिनाई है, क्योंकि उन्हें कुछ लेने को राज़ी नहीं किया जा सकता. क्योंकि वह कुछ लेने का प्रश्न ही नहीं है.
अकबर ने कहा, कुछ लेने का प्रश्न नहीं है तो क्या उपाय किया जाए? तानसेन ने कहा, कोई उपाय नहीं, आपको ही चलना पड़े. तो उन्होंने कहा,मैं अभी चलने को तैयार हूं.
तानसेन ने कहा, अभी चलने से तो कोई सार नहीं है. क्योंकि कहने से वह गायेंगे नहीं. ऐसा नहीं है वे गाते बजाते नहीं है. तब कोई सुन ले बात और है. तो मैं पता लगाता हूं, कि वह कब गाते-बजाते है. तब हम चलेंगे.
पता चला—हरिदास फकीर उसके गुरू थे. यमुना के किनारे रहते थे. पता चला रात तीन बजे उठकर वह गाते है. नाचते हे. तो शायद ही दुनिया के किसी अकबर की हैसियत के सम्राट ने तीन बजे रात चोरी से किसी संगीतज्ञ को सुना हो. अकबर और तानसेन चोरी से झोपड़ी के बाहर ठंडी रात में छिपकर बैठ गये. पूरी रात इंतजार करेने के बाद सुबह जब बाबा हरिदास ने भक्ति भाव में गीत गया और मस्त हो कर डोलने लगे. तब अकबर की आंखों से झर-झर आंसू गिर रहे थे. वह केवल मंत्र मुग्ध हो कर सुनते रहे एक शब्द भी नहीं बोले.
संगीत बंद हुआ. वापस घर जाने लगे. सुबह की लाली आसमान पर फैल रही थी. अकबर शांत मौन चलते रहे. रास्ते भर तानसेन से भी नहीं बोले. महल के द्वार पर जाकर तानसेन से केवल इतना कहां- अब तक सोचता था कि तुम जैसा कोई भी नहीं गा बजा सकता . यह मेरा भ्रम आज टुट गया. अब सोचता हूं कि तुम हो कहां. लेकिन क्या बात है? तुम अपने गुरु जैसा क्यों नहीं गा सकते हो?
तानसेन ने कहा, बात तो बहुत साफ है. मैं कुछ पाने की लिए बजाता हूं और मेरे गुरु ने कुछ पा लिया है. इसलिए बजाते गाते है. मेरे बजाने के आगे कुछ लक्ष्य है. जो मुझे मिले उसमें मेरे प्राण है. इसलिए बजाने में मेरे प्राण पूरे कभी नहीं हो पाते. बजाते-गाते समय में सदा अधूरा रहता हूं. अंश हूं. अगर बिना गाए-बजाएं भी मुझे वह मिल जाए जो गाने से मिलता है. तो गाने-बजाने को फेंककर उसे पा लुंगा. गाने मेरे लिए साधन है. साध्य नहीं. साध्य कहीं और है—भविष्य में, धन में, यश में, प्रतिष्ठा में—साध्य कहीं और है. संगीत सिर्फ साधन है. साधन कभी आत्मा नहीं बन सकता; साध्य में ही आत्मा का वास होता है. अगर साध्य बिना साधन के मिल जाए, तो साध को छोड़ दूँ अभी. लेकिन नहीं मिलता साधन के बिना, इसलिए साधन को खींचता हूं. लेकिन दृष्टि और प्राण और आकांशा ओर सब घूमता है साध्य के निकट. लेकिन जिनको आप सुनकर आ रहे है. संगीत उनके लिए कुछ पाने का साधन नहीं है. आगे कुछ भी है जिसे पाने को वह गा-बजा रहे हे. बल्कि पीछे कुछ है. वह बह रहा है. जिससे उनका संगीत फूट रहा है. और बज रहा है. कुछ पा लिया है, कुछ भर गया है. वह बह रहा है. कोई अनुभूति, कोई सत्य, कोई परमात्मा प्राणों में भर गया है. अब वह बह रहा है. पैमाना छलक रहा है आनंद का. उत्सव का.
तानसेन और वैजू बावरा का संबंध
बैजनाथ के पिता जब मृत्यु शैय्या पर थे तो उन्होंने बड़ी पीड़ा भरे स्वर में पुत्र से कहा, ‘बेटा, मैं अपनी संगीत कला के द्वारा जीते जी अपने दुश्मन को हरा न सका, इस बात की मेरे मन में बड़ी भारी पीड़ा है।’ बैजनाथ ने पिता के समक्ष भावुक स्वर में प्रण किया, ‘मैं आपके दुश्मन से बदला लूंगा, पिताजी।’ इसके बाद बैजनाथ के पिता ने सदा के लिए आंखें मूंद लीं। उसके मन में विचार उठा कि पिता के शत्रु से बदला लेने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि संगीत के क्षेत्र में उनसे भी बढ़ कर काम किया जाए।
उसने मन ही मन संगीत की साधना करने की ठानी। कुछ ही समय में बैजनाथ संगीत में ऐसा खोया कि लोग उसे ‘बावरा’ कहने लगे। उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। एक दिन वहां के राजा उसकी ख्याति और संगीत कला का जादू देखने-सुनने स्वयं अपने राज दरबार के मशहूर गायक के साथ बैजनाथ के पास पधारे।
बैजनाथ के संगीत को सुन राजा वाह-वाह कर उठे और उन्होंने बैजनाथ को राजमहल चलने को कहा। पर वह जाने को तैयार नहीं हुआ। उसने कहा, ‘ईश्वर के मुकाबले किसी व्यक्ति विशेष के दरबार में गाना संगीत और कला के लिए मुझे अनुचित लगता है।’ राजा के साथ आया मशहूर संगीतकार और गायक भी नतमस्तक हो गया।
बैजनाथ के समक्ष उसे अपना अस्तित्व एवं अपनी साधना अत्यधिक तुच्छ अनुभव हुई। बैजनाथ अपने पिता की इच्छा पूरी कर प्रतिशोध ले चुका था। राजा के साथ आया मशहूर संगीतज्ञ ही बैजनाथ के पिता का संगीत क्षेत्र का शत्रु था।
वह गायक और राजा कोई और नहीं संगीत सम्राट तानसेन और बादशाह अकबर ही थे। यह बैजनाथ ही आगे चलकर ‘बैजू बावरा’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनका मानना था कि शत्रु को हथियार से नहीं, कर्मों की बड़ी रेखा खींचकर ही पराजित किया जाना चाहिए।